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गांव-गाडा
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2022-07-20T15:53:22Z
QueerEcofeminist
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"[[गांव-गाडा]]" ला ने संरक्षित केले: Protection (via JWB) ([संपादन=फक्त स्वयंशाबीत (ऑटोकन्फर्म) सदस्यांनाच परवानगी आहे] (अनंत) [स्थानांतरण=फक्त स्वयंशाबीत (ऑटोकन्फर्म) सदस्यांनाच परवानगी आहे] (अनंत))
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QueerEcofeminist
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QueerEcofeminist
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QueerEcofeminist
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QueerEcofeminist
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QueerEcofeminist
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QueerEcofeminist
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QueerEcofeminist
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QueerEcofeminist
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Sunita prakash gambhir
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{{gap}}{{gap}}आणि अबोलीचे । मुक्त हास्य ॥{{nop}}
{{gap}}{{gap}}युगंधर माझा | झुंजला एकटा{{nop}}
{{gap}}{{gap}}दिल्या सोन वाटा । पांथस्थाना ॥{{nop}}
{{gap}}'डोळे फुटलेली संध्याकाळ' वर्णन करताना त्यांच्या प्रतिभेला असाच बहर
येतो.{{nop}}
{{gap}}{{gap}}पक्षाच्या पंखावरील चकाकणाऱ्या{{nop}}
{{gap}}रंगी बेरंगी इंद्रधनुष्याच्या कमानी' (पृ. १३) दिसू लागतात असे असले{{nop}}
तरी चव्हाणांच्या काही कविता' मधील आशय संदिग्ध राहतो ही संदिग्धतता अनु{{nop}}
भवाच्या गुंतागुंतीतून आणि गुढांमधून आलेली असावी. 'पान' 'तो' 'चालणार नाही'{{nop}}
'सत्यमेव जयते' 'निरोप' इत्यादी कविता या संदर्भात उल्लेखिता येतील. येथे गूढ{{nop}}
तसेच कायम राहते.{{nop}}
{{gap}}कोणत्याही कवीची कविता हो त्याच्या व्यक्तिमत्त्वाचा प्रतिभेचा आणि{{nop}}
अनुभूतीचा अविष्कार असते अशीच चव्हाणांची ही कविता लक्षात घ्यावी लागते.{{nop}}
प्रकाशाच्या शोधासाठी त्यांनी कवितेची वाट चोखाळलेली दिसते. पण हा प्रकाश{{nop}}
त्यांना काही केल्या सापडतच नाही म्हणूनच-{{nop}}
{{gap}}{{gap}}'पाहिजे मला दाट अरण्याला{{nop}}
{{gap}}{{gap}}तुडवून जाणारा एक प्रकाश रस्ता '{{nop}}
{{gap}}असे कवी म्हणतो. पण या समाजात पाहिजे तसे मिळत नाही हीच या{{nop}}
कवीची खरी वेदना आहे. 'फुलारू मनाचा हा माळी कुठे सापडतच नाही.'{{nop}}
{{gap}}'रमणीयार्थ प्रतिपादक: शरदः। ' या कवीच्या शब्द कळते फारसे प्रत्ययाला{{nop}}
येत नाहीत. काव्यात्म प्रतिक्रियाही अभावनेच जाणवतात तथापि, आपल्या मना-{{nop}}
तील आशयाच्या वेगळेपणाला साकार करणाऱ्या नव्या प्रतिमा मुक्त मनाने कवीने{{nop}}
'निखारा' मध्ये योजिलेल्या आहेत काही लक्षवेधी प्रतिमा अशा-{{nop}}
{{gap}}{{gap}}'जेव्हा सूर्याला म्हातारपण येते' ( बाजार ){{nop}}
{{gap}}{{gap}}'असाच त्याने गावात उजेड पेरला'(राणूमास्तर){{nop}}
{{gap}}{{gap}}'रात्रीच प्रेत दिवसाच्या खांद्यावर आहे' (नवीन सूर्य ){{nop}}
{{gap}}{{gap}}'पिंपळाच्या पाना पानातून ठिबकलेला ध्वनी (अभिवादन){{nop}}
{{gap}}{{gap}}मुलाच्या नौकरीचा कॉल आला{{nop}}
{{gap}}{{gap}}बांझोट्या फांदीला फूल यावं...... अन{{nop}}
{{gap}}फांदीने आपल्याच अंगावर खेळणाऱ्या पानांना गोड रस द्यावा, तसा त्यांने{{nop}}
आपल्या पहिल्या पगाराचा शेवट केला' ( एका मुलाच्या बापाने) विना तेला{{nop}}
मिठाच्या भाजीची उकळी हसू लागली ( एका मूलाच्या बापाने ) या कविता मधील{{nop}}
शब्द कळाही अशीच काव्यानूभूतीशी जखडलेली आहे. युगंधर माझा, सोनबाटा,{{nop}}
आलेख{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}६३<noinclude></noinclude>
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Sunita prakash gambhir
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गाभ्रे,पुराणमतांच्या शेवळांनी,समुद्राच्या काठोकाठ, गुदमरली रात्र, डोळे फुट-{{nop}}
लेली संध्याकाळ, कुटिल चांदणे, अक्वारे जिया, सोडियमची कांडी, फॉस्फरस, इ.{{nop}}
शब्द कवीच्या वेगळ्या शब्द कळेची जाणीव करून देतात.{{nop}}
{{gap}}श्री वामन इंगळे यांची या संग्राहाला लाभलेली प्रस्तावना या कविते विषयी{{nop}}
फारशी बोलतच नाही. ती फारच मोघम बोलते.{{nop}}
{{gap}}मला वाटते नीलकान्त चव्हाण यांच्या कवितेचे यश त्यांच्या अंतर्मुख कवि-{{nop}}
वृत्तीत आणि जीवनाकडे कमालीच्या तटस्थपणाने पाहणान्या दृष्टिकोनात समा{{nop}}
वले आहे म्हणूनच त्यांची कविता नुसती 'दलित कविता' राहात नाही. ती कविता{{nop}}
बनते.{{nop}}
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आलेख{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}६४<noinclude></noinclude>
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Sunita prakash gambhir
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गाभ्रे,पुराणमतांच्या शेवळांनी,समुद्राच्या काठोकाठ, गुदमरली रात्र, डोळे फुट-{{nop}}
लेली संध्याकाळ, कुटिल चांदणे, अक्वारे जिया, सोडियमची कांडी, फॉस्फरस, इ.{{nop}}
शब्द कवीच्या वेगळ्या शब्द कळेची जाणीव करून देतात.{{nop}}
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फारशी बोलतच नाही. ती फारच मोघम बोलते.{{nop}}
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वृत्तीत आणि जीवनाकडे कमालीच्या तटस्थपणाने पाहणान्या दृष्टिकोनात समा{{nop}}
वले आहे म्हणूनच त्यांची कविता नुसती 'दलित कविता' राहात नाही. ती कविता{{nop}}
बनते.{{nop}}
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आलेख{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}६४<noinclude></noinclude>
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Sunita prakash gambhir
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'''{{x-larger|नऊं}}'''{{gap}}{{gap}}{{x-larger|'''विषयाची निवड आणि संशोधन पद्धती'''}}{{nop}}
{{gap}}अभ्यासक जेव्हा संशोधनासाठी उत्सुक असतो तेव्हा त्याच्या समोर अभ्यास{{nop}}
विषयांचा तोटा नसतो. उलट आपल्या समोरच्या अनेक विषयांमधून कोणत्या{{nop}}
विषयाचे आव्हान स्वीकारावे असा यक्ष प्रश्न त्याच्या पुढे उभा राहतो. अशी{{nop}}
विषयांची उणीव अभ्यासकाला भासत नाही तेव्हा खऱ्या अर्थाने तो संशोधन करू{{nop}}
इच्छितो असे मानायला हरकत नाही. आपल्या समोर गर्दी करणाऱ्या विषयांपैकी{{nop}}
कोणते विषय वगळावे आणि कोणत्या विषयाचे कोणत्या मर्यादेपर्यंतचे संशोधन{{nop}}
करावे यासाठी मार्गदर्शकाची आवश्यकता भासते विद्यार्थ्यांची झेप, कुवत आणि{{nop}}
सामर्थ्य जोखून मार्गदर्शक त्याला योग्य दिशा दाखवितात.{{nop}}
{{gap}}वाङ्मयाच्या अभ्यासकांनी जर वाङ्मयेतिहास सूक्ष्मपणे बारकाईने वाचले{{nop}}
तर अनेक विषय अलक्षित, अस्पर्शित राहिलेले दिसतील अनेक ठिकाणी नवे{{nop}}
संशोधन करण्यास वाव आहे हे लक्षात येईल. शिवाय आपल्या पूर्वीच्या संशोधक{{nop}}
अभ्यासकांनी जाणता. अजाणता काही सुचविलेले असते. या सगळ्या सूचना नोट,{{nop}}
पकडता आल्या तर संशोधकाची वाट मोकळी होते.{{nop}}
{{gap}}मी जेव्हा माझ्या संशोधन विषयाचा विचार करीत होतो तेव्हा आपोआप व{{nop}}
आपल्या मनःपिंडानुसार विषय सुचले. महानुभाव वाड्मय, समर्थ संप्रदाय लोक{{nop}}
साहित्य, अनंत काणेकर इत्यादी. पण मनात अध्यापनाच्या निमित्ताने दुर्गाल{{nop}}
भागवतांचे 'व्यासपर्व' ठसले होते. महाभारतावर आधारित अर्वाचीन मराठी{{nop}}
ललित साहित्य अभ्यासावे असे वाटत होते. मराठी साहित्यिकही महाभारताकडे{{nop}}
आपले लक्ष वेधतात. त्यांचे महाभारताचे आकलन समर्थ व संपन्न आहे हे{{nop}}
जाणवले.{{nop}}
आलेख{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}{{gap}}६५<noinclude></noinclude>
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पान:स्वामी विवेकानंद यांचे समग्र ग्रंथ - नवम खंड.pdf/१७०
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JayashreeVI
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<noinclude><pagequality level="3" user="JayashreeVI" /></noinclude>खंड.] हिंदु चरित्रक्रमांतील वेदान्ताचे स्वरूप. १६५
{{rule}}
शोधावयाची म्हटले, तर ती एकाच मुद्यावर होते असे आपणास आढळून
येईल. हिंदुधर्मात अनेक शाखा आणि पंथ यांचे वास्तव्य असले, तरी त्या
सर्वांस वेद ग्रंथ प्रमाण आहेत. श्रुतींची पूज्यता सर्वांस सारखीच मान्य आहे.
यामुळे श्रुतिग्रंथ हा सर्वांचा सामान्य पाया आहे असे म्हणण्यास हरकत नाही.
‘फार काय, पण जो श्रुतींचे प्रामाण्य मानीत नाही, त्याला स्वतःस हिंदु म्हण
विण्याचा अधिकार नाही असेही म्हणता येईल. या श्रुतींचे मुख्य भाग दोन
आहेत, हे आपणांस बहुधा अवगत असेलच. या दोन भागांस कर्मकांड आणि
ज्ञानकांड अशी नावे आहेत. यज्ञयागादि क्रियाकलाप, हव्यकव्य इत्यादिकांचें
विवरण कर्मकांडांत आहेत. सांप्रतकाळी कर्मकांड बहुतांशी प्रचारांतून गेलें
आहे असे म्हणण्यास प्रत्यवाय नाही. उपनिषग्रंथ आणि वेदान्त यांचा
अंतर्भाव ज्ञानकांडात होत असून त्यांत आमच्या धर्मतत्त्वांचे विवरण केलें
आहे. हा भाग सर्व प्रकारच्या मतवाद्यांस मान्य आहे. द्वैती, विशिष्टाद्वैती
आणि अद्वैती या सर्वांस आणि सर्व पंथांच्या तत्त्वज्ञास हा भाग सारखाच
मानार्ह वाटत असून स्वमताच्या पुष्टीकरणास याच ज्ञानकांडाचा आधार
ते वारंवार घेत असतात. निरनिराळ्या मतांचे तंटे तोडण्याचे अखेरचे
आणि अत्युच्च दर्जाचे न्यायमंदिर ज्ञानकांड हेंच होय. कोणत्याही मताचें
विवरण तुम्हांस करावयाचे असेल, तर त्याला ज्ञानकांडाचा आधार आहे हे
तुम्हांस प्रथम दाखवावे लागते. ते तुम्हांस करतां न आले तर तुमचें सारें
पांडित्य फुकट जाऊन तुमचे मत वेदबाह्य आणि अग्राह्य ठरते. याकरतां
हिंदुधर्मातील सर्व मतांचा, पंथांचा आणि शाखोपशाखांचा अंतर्भाव एकाच
नांवांत तुम्हांस करावयाचा असेल, तर तें कार्य वेदान्ती अथवा वैदिक अशा
त-हेच्या एखाद्या नांवाने तुम्हांस करता येईल. वेदान्तधर्म अथवा वेदान्त
या नांवाचा उपयोग जेव्हा जेव्हा मी करतो, तेव्हां याच अर्थाने तो शब्द
मी योजीत असतो. केवळ अद्वैत मताचा निदर्शक या अर्थाने वेदान्त या
शब्दाचा उपयोग करण्याची चाल सांप्रत पडली आहे; याकरितां माझ्या म्हण
ग्याचे थोडें अधिक स्पष्टीकरण करणे येथें भाग आहे, उपनिषद्ग्रंग्रथांच्या
मूळ पायावर ज्या अनेक मतांची उभारणी झाली आहे, त्यांपैकीच अद्वैत
हेही एक मत आहे हे आपणा सर्वांस विदित आहेच. उपनिषदवृक्षाला ज्या
अनेक शाखा पुढे फुटल्या, त्यांतीलच अद्वैत ही एक शाखा आहे; पण शाखा<noinclude></noinclude>
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पान:स्वामी विवेकानंद यांचे समग्र ग्रंथ - नवम खंड.pdf/२२२
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JayashreeVI
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<noinclude><pagequality level="3" user="JayashreeVI" /></noinclude>खंड.] हिंदुस्थानांतील तत्त्ववेत्ते.२१७
{{rule}}
{{gap}}आता यापुढे हिंदुस्थानांतील धर्माच्या इतिहासाचा दुःखद काल सुरू
होतो. गीतेच्या कालीहि मतामतांतील द्वंद्वांस सुरवात झाली असावी असें
दिसते. सारे तंटे आणि द्वंद्व मोडून सर्वत्र सलोखा आणि एकवाक्यता निर्माण
करण्याकरितांच परमेश्वर श्रीकृष्णरूपाने अवतरला. भगवान् म्हणतात,
'मयिसर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।' या द्वंद्वांस प्रारंभ झाला त्याच्या अगो-
दरच्या काळी या सर्व मतांत सहिष्णुता नांदत असावी असे मानण्यास जागा
आहे. यानंतर वेगवेगळ्या मतांतच युद्धास सुरवात झाली असें नसून जाति-
भेदहि बळावत गेला; आणि जातीजातीतहि परस्पर तंटयास सुरवात झाली.
हिंदुसमाजरचनेत क्षत्रिय आणि ब्राह्मण हे दोन प्रमुख आणि सामर्थ्यवान्
वर्ण आहेत. आणि याच वर्णात प्रथम युद्धास सुरवात झाली. समाजाच्या
थेट अत्युच्च शिखरावरून निघालेला रणनदीचा हा ओघ सान्या हिंदुस्थानभर
पसरला; आणि सारा आर्यावर्त त्याखाली बुडून गेला. सुमारे हजार वर्षेपर्यंत
अशी परिस्थिति राहिल्यानंतर दुसरा एक देदीप्यमान तारा हिंदभूमीच्या
क्षितिजावर उदयास आला. हा गौतम शाक्यमुनि होय. बुद्धदेवाची. मतें
आणि त्याने सांगितलेला धर्म यांची सामान्य माहिती बहुधा आपणा सायांस
आहेच. भगवान् बुद्धदेवालाहि आम्ही अवतारी पुरुष मानतो. जगांत अत्युच्च
नीतीचा धडा बुद्धदेवाने प्रथम शिकविला. बुद्धदेव महान् कर्मयोगी होता.
भगवान् श्रीकृष्णांनी गीतेत प्रथम परोक्षतत्वांचे विवेचन केले आणि त्यांचा
प्रत्यक्ष आचार कसा करावा हे शिकविण्याकरितांच जणूं काय बुद्धदेवाच्या
रूपाने ते पुनः अवतरले.<br>
{{gap}}'' 'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायतो महतो भयात्' '' हा गीतेचा ध्वनि भरत
भूमीत पुनः वावरू लागला. 'स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्राः तेऽपि यांति परां
गतिम् ' असे म्हणण्याचा काळ पुनः आला. सर्वांच्या शृंखलांचे पाश तुटून
गेले. ज्ञानमंदिराकडे जाण्याचा रस्ता सर्वांना मोकळा झाला.'' 'इहैव तैर्जितः
स्वर्गः येषां साम्ये स्थितं मनः।' '' या तत्त्वरत्नाचा उच्च घोष पुनः सुरू
झाला. या गीतेंतील वचनांचा आचार प्रत्यक्ष उदाहरणाने दाखविण्याकरिता
भगवान् श्रीकृष्ण शाक्यमुनीच्या रूपाने अवतरले. या अवतारांत राजांचें
आणि साम्राज्यांचे कार्य त्यांनी केले नाही. शाक्य मुनीचा अवतार दीन
दुबळ्यांकरितां होता. शाक्यमुनींनी देवांच्या गीर्वाण वाणीचाहि त्याग करून<noinclude></noinclude>
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2022-07-20T12:13:48Z
JayashreeVI
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="JayashreeVI" /></noinclude>खंड.] हिंदुस्थानांतील तत्त्ववेत्ते.२१७
{{rule}}
{{gap}}आता यापुढे हिंदुस्थानांतील धर्माच्या इतिहासाचा दुःखद काल सुरू
होतो. गीतेच्या कालीहि मतामतांतील द्वंद्वांस सुरवात झाली असावी असें
दिसते. सारे तंटे आणि द्वंद्व मोडून सर्वत्र सलोखा आणि एकवाक्यता निर्माण
करण्याकरितांच परमेश्वर श्रीकृष्णरूपाने अवतरला. भगवान् म्हणतात,
'मयिसर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।' या द्वंद्वांस प्रारंभ झाला त्याच्या अगो-
दरच्या काळी या सर्व मतांत सहिष्णुता नांदत असावी असे मानण्यास जागा
आहे. यानंतर वेगवेगळ्या मतांतच युद्धास सुरवात झाली असें नसून जाति-
भेदहि बळावत गेला; आणि जातीजातीतहि परस्पर तंटयास सुरवात झाली.
हिंदुसमाजरचनेत क्षत्रिय आणि ब्राह्मण हे दोन प्रमुख आणि सामर्थ्यवान्
वर्ण आहेत. आणि याच वर्णात प्रथम युद्धास सुरवात झाली. समाजाच्या
थेट अत्युच्च शिखरावरून निघालेला रणनदीचा हा ओघ सान्या हिंदुस्थानभर
पसरला; आणि सारा आर्यावर्त त्याखाली बुडून गेला. सुमारे हजार वर्षेपर्यंत
अशी परिस्थिति राहिल्यानंतर दुसरा एक देदीप्यमान तारा हिंदभूमीच्या
क्षितिजावर उदयास आला. हा गौतम शाक्यमुनि होय. बुद्धदेवाची. मतें
आणि त्याने सांगितलेला धर्म यांची सामान्य माहिती बहुधा आपणा सायांस
आहेच. भगवान् बुद्धदेवालाहि आम्ही अवतारी पुरुष मानतो. जगांत अत्युच्च
नीतीचा धडा बुद्धदेवाने प्रथम शिकविला. बुद्धदेव महान् कर्मयोगी होता.
भगवान् श्रीकृष्णांनी गीतेत प्रथम परोक्षतत्वांचे विवेचन केले आणि त्यांचा
प्रत्यक्ष आचार कसा करावा हे शिकविण्याकरितांच जणूं काय बुद्धदेवाच्या
रूपाने ते पुनः अवतरले.<br>
{{gap}}'''स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायतो महतो भयात्''' हा गीतेचा ध्वनि भरत
भूमीत पुनः वावरू लागला. 'स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्राः तेऽपि यांति परां
गतिम् ' असे म्हणण्याचा काळ पुनः आला. सर्वांच्या शृंखलांचे पाश तुटून
गेले. ज्ञानमंदिराकडे जाण्याचा रस्ता सर्वांना मोकळा झाला.'''इहैव तैर्जितः
स्वर्गः येषां साम्ये स्थितं मनः।''' या तत्त्वरत्नाचा उच्च घोष पुनः सुरू
झाला. या गीतेंतील वचनांचा आचार प्रत्यक्ष उदाहरणाने दाखविण्याकरिता
भगवान् श्रीकृष्ण शाक्यमुनीच्या रूपाने अवतरले. या अवतारांत राजांचें
आणि साम्राज्यांचे कार्य त्यांनी केले नाही. शाक्य मुनीचा अवतार दीन
दुबळ्यांकरितां होता. शाक्यमुनींनी देवांच्या गीर्वाण वाणीचाहि त्याग करून<noinclude></noinclude>
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JayashreeVI
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="JayashreeVI" /></noinclude>खंड.] हिंदुस्थानांतील तत्त्ववेत्ते.२१७
{{rule}}
{{gap}}आता यापुढे हिंदुस्थानांतील धर्माच्या इतिहासाचा दुःखद काल सुरू
होतो. गीतेच्या कालीहि मतामतांतील द्वंद्वांस सुरवात झाली असावी असें
दिसते. सारे तंटे आणि द्वंद्व मोडून सर्वत्र सलोखा आणि एकवाक्यता निर्माण
करण्याकरितांच परमेश्वर श्रीकृष्णरूपाने अवतरला. भगवान् म्हणतात,
'मयिसर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।' या द्वंद्वांस प्रारंभ झाला त्याच्या अगो-
दरच्या काळी या सर्व मतांत सहिष्णुता नांदत असावी असे मानण्यास जागा
आहे. यानंतर वेगवेगळ्या मतांतच युद्धास सुरवात झाली असें नसून जाति-
भेदहि बळावत गेला; आणि जातीजातीतहि परस्पर तंटयास सुरवात झाली.
हिंदुसमाजरचनेत क्षत्रिय आणि ब्राह्मण हे दोन प्रमुख आणि सामर्थ्यवान्
वर्ण आहेत. आणि याच वर्णात प्रथम युद्धास सुरवात झाली. समाजाच्या
थेट अत्युच्च शिखरावरून निघालेला रणनदीचा हा ओघ सान्या हिंदुस्थानभर
पसरला; आणि सारा आर्यावर्त त्याखाली बुडून गेला. सुमारे हजार वर्षेपर्यंत
अशी परिस्थिति राहिल्यानंतर दुसरा एक देदीप्यमान तारा हिंदभूमीच्या
क्षितिजावर उदयास आला. हा गौतम शाक्यमुनि होय. बुद्धदेवाची. मतें
आणि त्याने सांगितलेला धर्म यांची सामान्य माहिती बहुधा आपणा सायांस
आहेच. भगवान् बुद्धदेवालाहि आम्ही अवतारी पुरुष मानतो. जगांत अत्युच्च
नीतीचा धडा बुद्धदेवाने प्रथम शिकविला. बुद्धदेव महान् कर्मयोगी होता.
भगवान् श्रीकृष्णांनी गीतेत प्रथम परोक्षतत्वांचे विवेचन केले आणि त्यांचा
प्रत्यक्ष आचार कसा करावा हे शिकविण्याकरितांच जणूं काय बुद्धदेवाच्या
रूपाने ते पुनः अवतरले.<br>
{{gap}}'''स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायतो महतो भयात्''' हा गीतेचा ध्वनि भरत
भूमीत पुनः वावरू लागला. 'स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्राः तेऽपि यांति '''परां
गतिम् ''' असे म्हणण्याचा काळ पुनः आला. सर्वांच्या शृंखलांचे पाश तुटून
गेले. ज्ञानमंदिराकडे जाण्याचा रस्ता सर्वांना मोकळा झाला.'''इहैव तैर्जितः
'''स्वर्गः येषां साम्ये स्थितं मनः।''' या तत्त्वरत्नाचा उच्च घोष पुनः सुरू
झाला. या गीतेंतील वचनांचा आचार प्रत्यक्ष उदाहरणाने दाखविण्याकरिता
भगवान् श्रीकृष्ण शाक्यमुनीच्या रूपाने अवतरले. या अवतारांत राजांचें
आणि साम्राज्यांचे कार्य त्यांनी केले नाही. शाक्य मुनीचा अवतार दीन
दुबळ्यांकरितां होता. शाक्यमुनींनी देवांच्या गीर्वाण वाणीचाहि त्याग करून<noinclude></noinclude>
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पान:स्वामी विवेकानंद यांचे समग्र ग्रंथ - नवम खंड.pdf/२२३
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JayashreeVI
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<noinclude><pagequality level="3" user="JayashreeVI" /></noinclude>२१८ स्वामी विवेकानंद यांचे समग्र ग्रंथ.[ नवमः
{{rule}}
सामान्यांच्या वाणींत आपल्या उपदेशाचे कार्य केले. आपला उपदेश सा
मान्य जनतेच्या अंतःकरणापर्यंत थेट पोंचावा म्हणून तिच्याच भाषेत ते
बोलू लागले. दरिद्री, दुःखी आणि क्षुद्र अशा लोकांचा सहवास प्रत्यक्ष
घडावा म्हणून राज्यासनादि त्यांनी दूर झुगारून दिले. रामाप्रमाणेच शाक्य
मुनींनीहि अंत्यजाला निर्भर आलिंगन दिले.<br>
{{gap}}भगवान् शाक्यमुनींचे अवतारकार्य आणि त्यांचे जीवनचरित्र सर्वांस
ठाऊक आहेच. पण अत्यंत दुःखाची गोष्ट ही की, त्या कार्याचा उपयोग
व्हावा तितका झाला नाही. हा दोष शाक्यमुनींचा नाही हे उघड आहे.
त्यांचे चरित्र अत्यंत पवित्र आणि अत्यंत उज्वल होते याबद्दल कोणास
शंकाही येणार नाही; पण त्या वेळी हिंदुस्थानांत ज्या असंस्कृत जाती होत्या,
त्यांना इतकी उच्च तत्त्वें पचण्यासारखी नव्हती. आर्याबरोबर इतर पुष्कळ
रानटी जातीहि त्या काळी मिसळल्या होत्या. आपले रानटी पूजनप्रकार
आणि पुष्कळसे धर्मवेड ही बरोबर घेऊन आर्यांच्या किल्ल्यांत त्यांनी प्रवेश
केला होता. आर्यांच्या संस्कृतीची छाप त्यांजवर पडली असावी असे आरंभी
वाटले, पण हा निवळ भ्रम होता. एक शतकहि पुरे लोटलें नाहीं तोच
त्यांनी आपल्या टोपलीतले सर्प आणि आपली सारी भुतावळ बाहेर काढली.
आपल्या साऱ्या प्राचीन पूर्वजांची ही संपत्ति बाहेर काढून ती साऱ्या हिंदु
स्थानभर त्यांनी वांटून दिली; आणि अशा रीतीने आर्यावर्ताच्या धर्माची
अवनती होऊन तो देश धर्मभोळेपणाचें एक साम्राज्य बनून गेला. आरं
भींच्या बुद्धानुयायांनी पशुहनन बंद करण्याकरितां वेदप्रणीत यज्ञयागां
वर मोठ्या निकराचा हल्ला केला. प्राचीन काळी प्रत्येक घरी यज्ञ होत असे;
आणि धर्मसाधनाचा मुख्य मार्ग तोच गणला जात असे. बौद्धांच्या हल्ल्यांनी
या क्रिया बंद पडल्या; आणि त्यांच्या जागी भपकेबाज देवालये, भपकेबाज
पूजोपचार आणि स्वयंमन्यमान पुजारीवर्ग या वस्तू निर्माण झाल्या. या
साऱ्यांचे अस्तित्व हिंदुस्थानांत आज आपणांपुढे प्रत्यक्ष आहेच. ब्राह्मणांच्या
मूर्तिपूजेचा विध्वंस बुद्धदेवानें केला, असें कांहीं अर्वाचीन पंडित म्हणतात,
तेव्हां मला खरोखरच मोठे हंसू येतें. गीर्वाण साहित्यांत स्वतःस प्रवीण
म्हणविणाऱ्या या पंडितांनी तरी अधिक विचार करावयास हवा होता. ब्रा
ह्मणी धर्माची उत्पत्ति बुद्धदेवानंतर झाली हे यांस कळावयास हवें होतें.{{nop}}<noinclude></noinclude>
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2022-07-20T12:25:38Z
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="JayashreeVI" /></noinclude>२१८ स्वामी विवेकानंद यांचे समग्र ग्रंथ.[ नवमः
{{rule}}
सामान्यांच्या वाणींत आपल्या उपदेशाचे कार्य केले. आपला उपदेश सा
मान्य जनतेच्या अंतःकरणापर्यंत थेट पोंचावा म्हणून तिच्याच भाषेत ते
बोलू लागले. दरिद्री, दुःखी आणि क्षुद्र अशा लोकांचा सहवास प्रत्यक्ष
घडावा म्हणून राज्यासनादि त्यांनी दूर झुगारून दिले. रामाप्रमाणेच शाक्य
मुनींनीहि अंत्यजाला निर्भर आलिंगन दिले.<br>
{{gap}}भगवान् शाक्यमुनींचे अवतारकार्य आणि त्यांचे जीवनचरित्र सर्वांस
ठाऊक आहेच. पण अत्यंत दुःखाची गोष्ट ही की, त्या कार्याचा उपयोग
व्हावा तितका झाला नाही. हा दोष शाक्यमुनींचा नाही हे उघड आहे.
त्यांचे चरित्र अत्यंत पवित्र आणि अत्यंत उज्वल होते याबद्दल कोणास
शंकाही येणार नाही; पण त्या वेळी हिंदुस्थानांत ज्या असंस्कृत जाती होत्या,
त्यांना इतकी उच्च तत्त्वें पचण्यासारखी नव्हती. आर्याबरोबर इतर पुष्कळ
रानटी जातीहि त्या काळी मिसळल्या होत्या. आपले रानटी पूजनप्रकार
आणि पुष्कळसे धर्मवेड ही बरोबर घेऊन आर्यांच्या किल्ल्यांत त्यांनी प्रवेश
केला होता. आर्यांच्या संस्कृतीची छाप त्यांजवर पडली असावी असे आरंभी
वाटले, पण हा निवळ भ्रम होता. एक शतकहि पुरे लोटलें नाहीं तोच
त्यांनी आपल्या टोपलीतले सर्प आणि आपली सारी भुतावळ बाहेर काढली.
आपल्या साऱ्या प्राचीन पूर्वजांची ही संपत्ति बाहेर काढून ती साऱ्या हिंदु
स्थानभर त्यांनी वांटून दिली; आणि अशा रीतीने आर्यावर्ताच्या धर्माची
अवनती होऊन तो देश धर्मभोळेपणाचें एक साम्राज्य बनून गेला. आरं
भींच्या बुद्धानुयायांनी पशुहनन बंद करण्याकरितां वेदप्रणीत यज्ञयागां
वर मोठ्या निकराचा हल्ला केला. प्राचीन काळी प्रत्येक घरी यज्ञ होत असे;
आणि धर्मसाधनाचा मुख्य मार्ग तोच गणला जात असे. बौद्धांच्या हल्ल्यांनी
या क्रिया बंद पडल्या; आणि त्यांच्या जागी भपकेबाज देवालये, भपकेबाज
पूजोपचार आणि स्वयंमन्यमान पुजारीवर्ग या वस्तू निर्माण झाल्या. या
साऱ्यांचे अस्तित्व हिंदुस्थानांत आज आपणांपुढे प्रत्यक्ष आहेच. ब्राह्मणांच्या
मूर्तिपूजेचा विध्वंस बुद्धदेवानें केला, असें कांहीं अर्वाचीन पंडित म्हणतात,
तेव्हां मला खरोखरच मोठे हंसू येतें. गीर्वाण साहित्यांत स्वतःस प्रवीण
म्हणविणाऱ्या या पंडितांनी तरी अधिक विचार करावयास हवा होता. ब्राह्मणी धर्माची उत्पत्ति बुद्धदेवानंतर झाली हे यांस कळावयास हवें होतें.{{nop}}<noinclude></noinclude>
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<noinclude><pagequality level="3" user="JayashreeVI" /></noinclude>२१८ स्वामी विवेकानंद यांचे समग्र ग्रंथ.[ नवमः
{{rule}}
सामान्यांच्या वाणींत आपल्या उपदेशाचे कार्य केले. आपला उपदेश सा
मान्य जनतेच्या अंतःकरणापर्यंत थेट पोंचावा म्हणून तिच्याच भाषेत ते
बोलू लागले. दरिद्री, दुःखी आणि क्षुद्र अशा लोकांचा सहवास प्रत्यक्ष
घडावा म्हणून राज्यासनादि त्यांनी दूर झुगारून दिले. रामाप्रमाणेच शाक्य
मुनींनीहि अंत्यजाला निर्भर आलिंगन दिले.<br>
{{gap}}भगवान् शाक्यमुनींचे अवतारकार्य आणि त्यांचे जीवनचरित्र सर्वांस
ठाऊक आहेच. पण अत्यंत दुःखाची गोष्ट ही की, त्या कार्याचा उपयोग
व्हावा तितका झाला नाही. हा दोष शाक्यमुनींचा नाही हे उघड आहे.
त्यांचे चरित्र अत्यंत पवित्र आणि अत्यंत उज्वल होते याबद्दल कोणास
शंकाही येणार नाही; पण त्या वेळी हिंदुस्थानांत ज्या असंस्कृत जाती होत्या,
त्यांना इतकी उच्च तत्त्वें पचण्यासारखी नव्हती. आर्याबरोबर इतर पुष्कळ
रानटी जातीहि त्या काळी मिसळल्या होत्या. आपले रानटी पूजनप्रकार
आणि पुष्कळसे धर्मवेड ही बरोबर घेऊन आर्यांच्या किल्ल्यांत त्यांनी प्रवेश
केला होता. आर्यांच्या संस्कृतीची छाप त्यांजवर पडली असावी असे आरंभी
वाटले, पण हा निवळ भ्रम होता. एक शतकहि पुरे लोटलें नाहीं तोच
त्यांनी आपल्या टोपलीतले सर्प आणि आपली सारी भुतावळ बाहेर काढली.
आपल्या साऱ्या प्राचीन पूर्वजांची ही संपत्ति बाहेर काढून ती साऱ्या हिंदु
स्थानभर त्यांनी वांटून दिली; आणि अशा रीतीने आर्यावर्ताच्या धर्माची
अवनती होऊन तो देश धर्मभोळेपणाचें एक साम्राज्य बनून गेला. आरं
भींच्या बुद्धानुयायांनी पशुहनन बंद करण्याकरितां वेदप्रणीत यज्ञयागां
वर मोठ्या निकराचा हल्ला केला. प्राचीन काळी प्रत्येक घरी यज्ञ होत असे;
आणि धर्मसाधनाचा मुख्य मार्ग तोच गणला जात असे. बौद्धांच्या हल्ल्यांनी
या क्रिया बंद पडल्या; आणि त्यांच्या जागी भपकेबाज देवालये, भपकेबाज
पूजोपचार आणि स्वयंमन्यमान पुजारीवर्ग या वस्तू निर्माण झाल्या. या
साऱ्यांचे अस्तित्व हिंदुस्थानांत आज आपणांपुढे प्रत्यक्ष आहेच. ब्राह्मणांच्या
मूर्तिपूजेचा विध्वंस बुद्धदेवानें केला, असें कांहीं अर्वाचीन पंडित म्हणतात,
तेव्हां मला खरोखरच मोठे हंसू येतें. गीर्वाण साहित्यांत स्वतःस प्रवीण
म्हणविणाऱ्या या पंडितांनी तरी अधिक विचार करावयास हवा होता. ब्राह्मणी
धर्माची उत्पत्ति बुद्धदेवानंतर झाली हे यांस कळावयास हवें होतें.{{nop}}<noinclude></noinclude>
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JayashreeVI
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<noinclude><pagequality level="3" user="JayashreeVI" /></noinclude>खंड.]हिंदुस्थानांतील तत्त्ववेत्ते.२१९.
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हिंदुस्थानांत मूर्तिपूजेचा प्रचार बौद्ध धर्मानंतर झाला. वर्षा दोन वर्षांपूर्वी
एका रशियन गृहस्थाने एक पुस्तक प्रसिद्ध केले आहे. त्यांत ख्रिस्तचरित्र
सांगत असतां येशू ख्रिस्त जगन्नाथाच्या देवालयांत ब्राह्मणी धर्म शिकण्या
करितां गेला असल्याचे सांगितले आहे. पण ब्राह्मणी धर्मातील मूर्तिपूजा, आणि
स्वतःस श्रेष्ठ समजून इतरांपासून विभक्त राहण्याचा त्यांचा बाणा या गोष्टींनी
ख्रिस्ताचें मन कंटाळून बौद्ध लामाकडे तो निघून गेला, असाहि शोध या
रशियन ग्रंथकाराने लाविला आहे. हिंदुस्थानाच्या इतिहासाची यत्किंचितहि
माहिती ज्याला आहे, त्याला या दंतकथेचा फोलपणा तेव्हांच पटेल. जग
न्नाथाचे देवालय बौद्धांचे आहे, ही गोष्ट सर्वविश्रुत आहे. हे प्राचीन देव
स्थान आणि त्याबरोबरच कित्येक दुसरीहि बौद्धांपासून हिरावून घेऊन हिंदु
धर्मानुयायांनी ती आपली देवस्थाने बनविली. अशाच गोष्टींची पुनरावृत्ति
यापुढे आणखीहि कित्येक वेळां होणार आहे. जगन्नाथाच्या देवालयाची
हकीकत अशा प्रकारची आहे. ख्रिस्ताच्या काळी तेथे एकहि ब्राह्मण नव्हता.
इतिहास अशा प्रकारचा असतां ब्राह्मणी धर्म शिकण्याकरितां येशू ख्रिस्त
जगन्नाथास गेला, हा शोध या रशियन पंडिताने कोठून लाविला हे समजणे
दुरापास्त आहे. 'सर्वां भूती दया' हे बुद्धदेवाच्या धर्माचें आदितत्त्व
आहे. बौद्ध धर्म हा मुख्यत्वेकरून अत्युच्च नीतिप्रवर्तक धर्म आहे. तथापि
हा धर्म इतका उच्च असतांहि हिंदुस्थानांतून तो क्रमशः नाहीसा होत गेला;
आणि त्याच्या नाशानंतर जें धर्मस्वरूप तेथें शिल्लक राहिलें तें अत्यंत कि
ळसवाणे होते. यांत घाणेरडे प्रकार किती होते, याचे यथातथ्य वर्णन कर
ण्यास आज मला अवकाश नाही, आणि तसे करण्याची माझी इच्छाही
नाही. अत्यंत उद्वेगजनक आचार, अत्यंत भयंकर पूजाप्रकार आणि अत्यंत
किळसवाणी चोपडी ही या काळी निर्माण झाली. जितक्या घाणेरड्या क
ल्पना मनुष्याच्या मेंदूत निर्माण होणे शक्य आहे आणि जितके घाणेरडे
शब्द मानवी हस्ताने लिहिले जाण्यासारखे आहेत, तितक्या साऱ्या कल्पना
या काळी प्रसार पावून तितके घाणेरडे शब्द या काळी लिहिले गेले. क्रूर पशूना
शोभतील असे अत्याचार धर्माच्या वेषाने समाजांत खुशाल वावरू लागले.
बौद्ध धर्माचे विकृत रूप अशा प्रकारचे झालें.<br>
{{gap}}पण भरतभूमीने अजून जगावें, असा ईश्वरी संकेत होता; आणि या-
करितां त्याने पुनः एकवार अवतार घेतला. ''''यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भ-'''<noinclude></noinclude>
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पान:स्वामी विवेकानंद यांचे समग्र ग्रंथ - नवम खंड.pdf/२२५
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<noinclude><pagequality level="3" user="JayashreeVI" /></noinclude>२२० स्वामी विवेकानंद यांचे समग्र ग्रंथ.[ नवम
{{rule}}
वति' या आपल्या वचनाची पूर्तता पुनः एकवार त्याने केली. या वेळी हा
अवतार हिंदुस्थानाच्या दक्षिण भागांत झाला. ब्राह्मणकुळांत जन्म घेतलेल्या
या अवतारी पुरुषाने आपल्या वयाच्या सोळाव्या वर्षी आपलें ग्रंथलेखन
पुरे केले, असा लोकप्रवाद आहे. या अवतारी तरुणाचे नांव शंकराचार्य असें
आहे. केवळ सोळा वर्षांच्या वयांत या बाल आचार्यांनी जी ग्रंथसंपत्ति
निर्माण केली आहे, ती पाहून आश्चर्याने सारे जग थक्क होऊन जाते. पूर्व
काली भरतभूमीनें जें धर्मकार्य केले आणि त्या वेळी ती पावित्र्याचे वसति
स्थान होऊन राहिली होती तेंच पावित्र्य तिला पुन्हां प्राप्त करून द्यावे, असा
या आचार्यांचा हेतु होता; पण हिंदुस्थानाची अवनति या वेळी कोणत्या
थराला पोचली होती, याचा क्षणभर विचार केला म्हणजे हे कार्य किती
दुष्कर होतें हे तेव्हांच दिसून येईल, या वेळेच्या परिस्थितीचे अल्पसें वर्णन
मी तुम्हांस आधी सांगितलेंच आहे. आजमितीसहि जे भयंकर प्रकार हिंदु
स्थानांत तुम्हांस आढळून येतात आणि जे नाहीसे करण्यासाठी तुम्ही इतकी
धडपड करितां, त्यांची उत्पत्ति या परिस्थितीतूनच झाली आहे. अवनतीचें
साम्राज्य त्या काळी अकुतोभय चालू होते. तार्तार, बलुची इत्यादि अनेक
पशुतुल्य रानटी जाती हिंदुस्थानांत आल्या होत्या. येथे आल्यानंतर बौद्ध
धर्माचा स्वीकार त्यांनी केला. आमच्याशी त्यांची सरमिसळ होऊन गेली.
त्यांच्या चालीरीतीहि आमच्यांत मिसळून गेल्या; आणि अशा रीतीने हिंदी
राष्ट्रांत भयंकर चालीरिती आणि पशुतुल्य आचरण यांचा सुकाळ झाला.
स्वतःच्या विनाशकाळी बौद्धधर्माने आपली वारसदारी म्हणून जो कांहीं
ठेवा मागे ठेविला तो हाच; आणि शंकराचार्यांनाहि या ठेव्याचा स्वीकार करू
नच आपला पुढील मार्ग चोखाळणे अवश्य होतें. आचार्यांच्या काळानंतर
हिंदुस्थानाला जें स्वरूप प्राप्त झाले, तें वेदान्ताने बौद्ध अवनतीवर मिळवि
लेल्या विजयामुळेच होय. आचार्य गेले, तथापि हा झगडा अद्यापिहि
पुरा झाला नसून तो तसाच पुढे चालू आहे. श्रीशंकराचार्य महान् तत्त्व
वेत्ते होते. बौद्धधर्माची अंतिम तत्त्वे आणि वेदांत धर्म यांत फारसा फरक
नाहीं हे आचार्यांनी सिद्ध केलें. बौद्ध भिक्षूना स्वधर्माच्या आद्यप्रवर्तकाची
तत्त्वं यथार्थपणे न समजल्यामुळेच भलत्या मार्गाने जाऊन त्यांची अवनति
झाली. बुद्धदेवाच्या शिकवणीचे रहस्य त्यांच्या गळी न उतरल्यामुळे जीवात्मा<noinclude></noinclude>
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{{gap}}"अमन, जंबोआपला काका नाही. तो मामा आहे. त्याला मामा म्हण."<br>{{gap}} "का? मी चाचूच म्हणणारेय त्याला जा...जा...!'<br>{{gap}}'अरे तो अतुलमामाचा मित्र आहे. आईच्या भावाचा मित्र. म्हणजे मामाच नि बाबांचा मित्र म्हणजे काका, हो की नाही ग आजी ?' अनुष्का वय वर्षे चार आणि अमन वय वर्षे तीन. यांच्यातला हा संवाद.<br>{{gap}}मुले वाढायला लागली की कुटुंबातल्या व्यक्तींच्या वागण्याबोलण्यातून, दैनंदिन व्यवहारातून, नातीगोती आपोआप शिकू लागतात. नाती गोती, गणगोत हे शब्द महाराष्ट्राच्या लोकजीवनात ओतप्रोत मुरले आहेत. गोत हा शब्द गोत्र या संस्कृत शब्दापासून मराठीत आला. भारतात सुरुवातीस 'गणराज्य' म्हणजे लोकांचे राज्य होते. एका विचाराने, एकदिलाने आणि एकमेकांच्या व्यथावेदना जाणून सुखाच्या दिशेने जाणारा जनसमूह म्हणजे 'गण'. शब्दांच्या मागे हजारो वर्षांचा इतिहास असतो. सामाजिक वाटचालीचे चलच्चित्र त्यात रेखाटलेले असते.<br>{{gap}}माणूस हा एक प्राणीच. कुत्रे, मांजर, वानर, सिंह यांसारखा. निसर्गाने प्रत्येक प्राण्याला स्वत:ची जीवनवृत्ती चालविण्यासाठी व संरक्षण करण्यासाठी विशिष्ट शक्ती दिली आहे. वेगळेपण दिले आहे. माणूस हरणाच्या वा वाघाच्या<noinclude>{{Right|प्रवास, नात्यागोत्याचा.../७५}}</noinclude>
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